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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

तिरंगा हाउस

ग्राम्यगंध


घर लौटा तो गैलरी पार करते ही मेरे कदम बराबर वाले कमरे की तरफ बढ़ गए। मुन्नी, माँ को खत पढ़कर सुना रही थी कि अचानक मुझे आता देख ठिठक गई। मुझे समझते देर न लगी कि अवश्य ही खत दादी जी का आया होगा। माँ की दृष्टि मेरी ओर उठी तो सहसा मुझे लगा कि उसमें एक विचित्र सा अजनबीपन फैला हुआ है। मैं हतप्रभ सा हो उठा, माँ कभी भी इतनी अन्जान नहीं लगी थी मुझे।

मुन्नी ने खत मुट्ठी में बन्द कर लिय। मैं जानता था दादी ने क्या लिखा होगा इसलिए खत मांगने का मन नहीं हुआ और चुपचाप अपने कमरे में लौट आया।

पत्नी कमरे में नहीं थी। शायद पड़ोस में किसी के यहाँ गई होगी। धूप में चलकर आने तथा गले के सूखने के कारण मुझे पत्नी पर कुछ झल्लाहट हुई। न जाने वह कब लौटे सोचकर मैंने स्वयं ही फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर होंठो से लगा ली। पानी ने थोड़ी राहत दी। सामने खिड़की से आकर धूप के चकते पलंग पर फैलने लगे। मैंने पर्दा खींचा और तकिए को व्यवस्थित करके लेट गया।

दादी के पत्र का ख्याल अभी तक धूमिल नहीं हुआ था। मुझे लगा मुन्नी अब खत को धीरे-धीरे दबे स्वर में दूसरी बार पढ़ रही होगी और माँ की नजरें अधिक अजनबी हो गई होगी। माँ को भी क्यों दोष दूँ, यह अजनबीपन तो अनेको बार मैं अपने अंदर महसूसता आया हूँ, न जाने क्यूं इस घर की जमीन से, माँ-पिता से, बहन-भाईयों से इतना लगाव क्यों नहीं है? क्यों उनके दु:ख-सुख में खून इतना उबाल नहीं खाता, जितना खाना चाहिए।

अब भी गांव की कच्ची छत जब भी टपकती तो चिंता होने लगती है, दादी को कांटा लगने की खबर सुनता हूँ, तो बेचैनी होने लगती है। लगता है जो श्रद्धा मुझे माँ में होनी चाहिए, उस पर केवल दादी का अधिकार है और हो भी क्यों न माँ से अधिक प्यार दिया है उन्होंने।

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